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JINDAGI KE CANVAS PAR KUCH RANG
Tallenna

JINDAGI KE CANVAS PAR KUCH RANG

साहित्यिक विधाएं अपना स्वरूप बदल रही हैं। उनका पारंपरिक घेरा अब लगभग टूट चुका है। वे एक-दूसरे के परिसर में निरंतर आवाजाही कर रही हैं। इससे कथा और कथेतर का भेद भी मिटने-मिटने को प्रतीत होता है। कई विधाओं ने सहमेल कर एक नया स्वरूप गह लिया है। संजय स्वतंत्र की यह किताब भी ऐसी ही एक नई विधा में हमारे सामने उपस्थित है। इसमें कथाएं भी हैं और कथेतर भी। इसमें संकलित कहानियां दरअसल, दफ्तर की आवाजाही में रोजमर्रा घटित प्रसंगों से उद्वेलित हैं। इसलिए इनमें देश-दुनिया की समस्याओं के साथ-साथ अपने बिल्कुल आस-पड़ोस, दोस्त-मित्रों, घर-परिवार, पर्व-त्योहार, बदलते समाज और संस्कृति की चिंताएं कथाओं के जरिए उभरी हैं। कथाएं वास्तविक हैं, रोज दिल्ली मेट्रो में सफर करते हुए लेखक के आसपास, उसके सामने जो कुछ घटित होता है, वही इसमें दर्ज है। इन घटनाओं की व्याप्ति इसलिए बड़ी है कि वे मनुष्य की समकालीन समस्याओं, चिंताओं और बुनियादी संघर्षों से जा जुड़ती हैं। इनमें हर मोड़ पर जीवन की दुरभिसंधियां हैं। इनमें स्त्री के दैनंदिन संघर्ष हैं, उसके उत्पीड़न और शोषण की दास्तानें हैं, तो मुक्त मन से जी रही युवतियों के भीतर से उमगती बेहतरी की संभावनाएं भी हैं। इनमें प्रेम के सुकोमल आत्मिक अंखुए जगह-जगह फूटते नजर आते हैं, तो कहीं-कहीं वैराग्य के तत्त्व भी दीख जाते हैं। कविता का संस्पर्श तो हर कहानी में है ही, जिससे ये स्वाभाविक ही सहज और सरस हो उठी हैं। सीधे-सपाट ढंग से दर्ज ये कहानियां और घटनाएं किसी भाषिक, दार्शनिक, शैलीगत शृंगार के मोह में नहीं पड़तीं। मगर इनके कहन का तरीका अनूठा है और वही इनको ललित निबंधों के करीब ले जाता है। यह कथा के साथ संस्मरण, ललित प्रसंग, रिपोर्ताज, रेखाचित्र, यात्रा संस्मरण, संपादकीय विवेचन, समीक्षकीय दृष्टि आदि का मिलाजुला रसायन
ISBN
9789358692563
Kieli
Hindi
Paino
310 grammaa
Julkaisupäivä
6.9.2025
Sivumäärä
202